Monday, June 16, 2008

मज़ा बिगड़ा


याद करें वो अंत्याक्षरी के दिन. बचपन में बोलते थे बैठे-बैठे क्या करें करना है कुछ काम. शुरू करो अंत्याक्षरी ले कर प्रभु का नाम. फिर म से गाना गाओ और ऐसे-ऐसे करते किसी की हार होती तो किसी की जीत.



इस अंत्याक्षरी में ख़ास बात ये थी कि आपको फ़िल्म का नाम, संगीत निर्देशक, गीतकार और गायक-गायिका का नाम भी बताना होता था. उन दिनों न टीवी होता था और न ही दिन-रात फ़िल्मी गाने बजाते रेडियो के एफ़ एम चैनल्स.



आज ये सब कुछ है लेकिन गानों को सुनाने और दिखाने का अंदाज़ बदल गया है. अब रेडियो के नए एफ़ एम चैनल्स पर पूरा गाना भी नहीं सुनाते. बीच-बीच में रेडियो जॉकी की बक-बक सुन-सुन कर कान पक जाएं तो तुरंत ही चैनल बदल डालें. बस यही तरीक़ा बचता है.



न तो कोई रेडियो जॉकी आपको ये बताएगा कि ये कौन सी फ़िल्म का गाना है और न ही गीतकार, संगीत निर्देशक या फिर गायक-गायिका का नाम बताएगा.



लेकिन पहले भी और आज भी सदाबहार आकाशवाणी है. आज एफ़ एम के ज़माने में भी न सिर्फ़ चलती कार में आपकी ख़बरों की भूख मिटाता हुआ बल्कि गानों के पीछे रहने वाले कई प्रतिभाशाली लोगों का परिचय भी देता चलता है.



ये भारत में रेडियो क्रांति की सही तस्वीर है. प्राइवेट एफ़ एम चैनल्स सिर्फ़ बकवास करते हैं. वो दरअसल ज्यूक बॉक्स बन कर रह गए हैं. जहां एक के बाद एक गाने बजते रहते हैं. लेकिन सही मायनों में अब भी सूचना, जानकारी और मनोरंजन तीनों का ज़िम्मा संभाला है आकाशवाणी के गोल्ड एफ़ एम चैनल ने.



अब इन प्राइवेट एफ़ एम चैनल पर न्यूज़ की अनुमति देने की बात भी होती आ रही है. ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि गानों के बीच दर्शकों से तू-तड़ाक कर बात करने वाले अवयस्क रेडियो जॉकी ख़बरों का क्या हाल कर देंगे.



भारत में न तो प्राइवेट टीवी और न ही रेडियो में कहीं भी समझदारी या संतुलन नहीं दिखता है. रेडियो पर ऐसा संतुलन ज़्यादा ज़रूरी है क्योंकि इसकी पहुंच का मुक़ाबला कोई भी माध्यम नहीं कर सकता.
बीबीसी रेडियो की नौकरी करते वक़्त तीन साल लंदन में बिताने का मौक़ा मिला. सुबह की शिफ़्ट के लिए कई बार घर से चार बजे सुबह निकलना होता था. हमेशा एक ही ड्राइवर था जो मुझे घर से पिक करने आता था.



सुबह साढ़े तीन बजे उठ कर और तैयार हो कर जब मैं उसकी गाड़ी में सवार होता था उससे हाय हैलो के अलावा कोई और बात नहीं होती.



उसका शौक था रेडियो सुनने का. मुझे शुरू-शुरू में हैरानी हुई कि किस तरह कोई व्यक्ति सुबह चार बजे से ही नॉन स्टॉप सिर्फ़ रेडियो पर ख़बरों के चैनल्स सुन सकता है.



लेकिन वो हमेशा या तो बिज़नेस या फिर बीबीसी के घरेलू एफ़ एम चैनल्स लगाए रखता था. रेडियो पर चौबीस घंटे के ये न्यूज़ स्टेशन हमेशा गंभीर ढंग से घरेलू या विदेशी समस्याओं पर न सिर्फ़ लाइव समाचार देते रहते हैं बल्कि थोड़ी-थोड़ी देर में मामलों के जानकारों से स्टुडियो या फिर फ़ोन लाइन पर बात भी करवाते रहते हैं.



रेडियो के मामले में ब्रिटन की परिपक्विता का कोई मुकाबला नहीं है. इसी तरह से वहां के दर्शकों या श्रोताओं के रेडियो की ओर झुकान का भी कोई मुक़ाबला नहीं है.



लेकिन ये भारत में भी कमी है और आकाशवाणी की भी कि यहां वो एफ़ एम पर ख़बरों का एक भी चौबीस घंटे का स्टेशन शुरू नहीं कर सके हैं.



एआईआर एफ़ एम गोल्ड पर हर घंटे समाचार आते ज़रूर हैं लेकिन सिर्फ़ पांच मिनट के लिए वो भी बारी-बारी से अंग्रेज़ी और हिंदी में. उसके तुरंत बाद पुराने गाने शुरू हो जाते हैं.



रात को ज़रूर साढ़े आठ बजे से एक घंटे की सामयिक विषयों पर चर्चा और समाचार का क्रम है. जो सुनने में बेहद दिलचस्प है.



पहले साढ़े आठ बजे के हिंदी प्रसारण में जाने-माने पत्रकारों को बुलाया जाता था जो दिन की बड़ी ख़बरों पर अपनी राय रखा करते थे. लेकिन सरकारी मीडिया में जो हाल है ज़ाहिर है किसी पत्रकार ने ऐसा कुछ कहा होगा जो आकाओ को रास नहीं आया लिहाज़ा उसे बंद कर दिया गया है.



नौ बजे अंग्रेजी में समाचार आते हैं फिर पंद्रह मिनट का डिस्कशन होता है. इसकी फॉर्मेट मुझे बेहद पसंद है. कोई भी विषय पर दो स्वतंत्र जानकारों को बातचीत के लिए बैठा दिया जाता है. ये आपस में लंबे-लंबे सवाल जवाब करते हैं. किसी भी गंभीर या गूढ़ विषय को समझाने का इससे अच्छा तरीक़ा नहीं हो सकता.



अगर प्राइवेट एफ़ एम स्टेशन पर नहीं तो कम से कम आकाशवाणी पर ही रेडियो का चौबीस घंटे समाचारों का प्रसारण शुरू किया जाना चाहिए. ये भारत में प्राइवेट न्यूज़ चैनलों से त्रस्त लोगों के लिए मरहम का काम करेगा.


Sunday, May 18, 2008

ब्लॉग पर गाली

किस तरह के लोग और किस किस तरह की मानसिकता है. मैं ब्लॉग लिखता हूं क्योंकि इससे मेरे लिखने की भूख मिटती है. लेकिन मैं ये अपेक्षा नहीं करता था कि मेरा लिखना किसी के लिए अपनी संकुचित और गिरी हुई मानसिकता दिखाने का ज़रिया बन जाएगा.

बात है मेरे पोस्ट छोटा पत्रकार बड़ा पत्रकार की. इस पर मुझे कुल ८ टिप्पणियां मिलीं. सबसे पहली थी अविनाश की. बाद में कुछ और भी जिसमें कुछ को ये पोस्ट पसंद आई और कुछ ने इस पर सवाल उठाया. मुझे सभी टिप्पणियां पसंद आईं.

लेकिन हद तब हो गई जब किसी अंजान व्यक्ति ने पहले तो अविनाश को गाली बकी. फिर उससे भी भूख नहीं मिटी तो शुद्ध हिंदी में गाली ही लिख डाली.

इसमें ग़लती मेरी भी है क्योंकि जब मैंने ब्लॉग बनाया था तब कमेंट मॉडरेशन में अंजान व्यक्तियों को भी टिप्पणी करने का अधिकार दे डाला था. इसका कितना बड़ा नुकसान हो सकता है ये मैंने देख लिया. इसलिए अब मेरे पोस्ट पर सिर्फ़ वही व्यक्ति कमेंट कर पाएंगे जिनका वैलिड ई-मेल या फिर कोई दूसरा आई डी हो.

Tuesday, May 13, 2008

छोटा पत्रकार बड़ा पत्रकार

समाज के इन दो वर्गों को कवर करते हुए पत्रकार भी दो श्रेणियों में बंटे हुए हैं. एक है छोटा पत्रकार. बेचारा. चेहरे पर दीन-हीन भाव, पिचके गाल और पेट, कभी कुर्ता तो कभी कंधे पर बैग लटकाए. दुम हिलाते आगे-पीछे घूमते हुए.

एक है बड़ा पत्रकार. चेहरे पर कुलीनता. मोटी तनख्वाहों से पेट और गाल फूलते हुए. कभी कुर्ता पहने तो चंपू बोले वाह सर क्या फैशन है. चार पांच चंपू आगे-पीछे घूमते हुए.

ख़बर भी इन दोनों के अंतर को समझती है. इसलिए छोटा पत्रकार ख़बर के पीछे भागता है. ख़बर बड़े पत्रकार के पीछे भागती है.

बड़ा पत्रकार ख़बर बनाता भी है. छोटा पत्रकार बड़े पत्रकार पर ख़बर लिखकर खुद को धन्य महसूस करता है. बड़े पत्रकार का पार्टियों में जाना, मैय्यत में जाना, नए ढंग से बाल कटवाना सब ख़बर है.

बड़ा पत्रकार पैदा होता है. छोटा पत्रकार छोटी जगह से आकर बड़ा बनने की कोशिश करता है.

बड़े पत्रकार के मुंह में चांदी की चम्मच होती है. वो बड़े स्कूलों में पढ़ने जाता है. शुरू से उसकी ज़बान अंग्रेजी बोलती है. हिंदी में वो सिर्फ़ अपनी कामवाली बाइयों और ड्राइवर से ही बात कर पाता है.

छोटा पत्रकार टाटपट्टियों पर बैठकर पढ़ाई करता है. मास्टरजी की बेंत उसके हाथों को लाल करती है. बारहवीं कक्षा तक फ़ादअ को फ़ादर और विंड को वाइंड कहता है. गुड मॉर्निंग कहने में ही उसके चेहरा शर्म से लाल हो जाता है.

नौकरियां छोटे पत्रकार को दुत्कारती हैं. बड़े पत्रकार को बुलाती हैं. नेता भी बड़े पत्रकार को पूछते हैं. छोटे से पूछते हैं तेरी औकात क्या है.

लेकिन छोटा कभी कभी बड़े काम करने की कोशिश भी करता है. कभी-कभी कर भी जाता है. लेकिन जब बड़ी ख़बर लेकर बड़े पत्रकार के पास जाता है तो बड़े पत्रकार को उसके इरादों पर शक होने लगता है.

कही ये अपनी औकात से बाहर तो नहीं निकल रहा. कहीं ये मेरी जगह लेने की कोशिश तो नहीं कर रहा. अबे ओ हरामी छोटे पत्रकार. अपनी औकात में रह. ये ख़बर अख़बार में नहीं जाएगी.

बड़ा पत्रकार कई बार छोटे को ख़बर का मतलब भी समझाने लगता है. देख छोटे. आज कल न ये समाजसेवी ख़बरों का ज़माना नहीं रहा. भ्रष्टाचार का खुलासा करेगा. अरे वो तो हर जगह है. आज के ज़माने में नई तरह की ख़बरें चलती हैं.

देख छोटे. टीवी चैनल्स को देख. वहां क्या नहीं बिक रहा है. खली चल रहा है. राखी सावंत के लटके-झटके चल रहे हैं. तू इन सबके बीच ये ख़बर कहां से ले आया रे.

लेकिन हुजूर हमें तो यही सिखाया गया. अबे चुप ईडियट. क्या पोंगा पंडितों की बात करता है. देख तेरी इच्छा यही है न कि तू भी बड़ा पत्रकार बने. बड़ी गाड़ी में घूमे. मोटी तनख्वाह पाए. इसलिए जो तूझे सिखाया गया उसको भूल जा. अब जैसा मैं करता हूं वैसा कर तो बड़ा पत्रकार बन जाएगा.

अबे तेरी औकात क्या है छोटे. कहता है बीस साल हो गए पत्रकारिता में. क्या मिला. अरे मिलेगा क्या. बाबाजी का घंटा. हमें देख. दस साल में कहां से कहां पहुंच गए.

छोटा और छोटा हो जाता है. लटका चेहरा लटक कर पैर तक पहुंचता है. घर पहुंचता है तो बीवी की मुस्कान उसे चुड़ैल के अट्टहास की तरह लगती है. कल तक जिस बेटे को सिर आँखों पर रखा उसे लात मार कर बोलता है अबे ओ छोटे की औलाद. तू ज़िंदगी भर छोटे की औलाद ही रहेगा.

Monday, May 12, 2008

बकलौल लटपटिया

ये मेरे शब्दकोश में जुड़े ताज़ा शब्द हैं. इनका मतलब सीधा-सीधा समझाना मुश्किल है. लेकिन मुझे ये शब्द बताने वाले बिहार से केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह कुछ-कुछ समझा पाते हैं.

उनका कहना है कि खड़ी हिंदी में इनका कोई पर्यायवाची नहीं है. ये एक तरह से चुटकी लेने का ढंग है. मिसाल के तौर पर श्रीमान क लटपटिया हैं. इसका मतलब ये है कि क पर विश्वास नहीं किया जा सकता. वो कभी कुछ कहते हैं तो कभी कुछ और.

बकलौल का अर्थ मैं नहीं समझ पाया. अगर आपमें से कोई जानता हो तो बता दे.

मैं जहां से आता हूं. मध्य प्रदेश के मालवा से वहां हमारे स्थानीय स्लैंग होते रहे हैं. ज़्यादा तो अब याद नहीं. लेकिन उन्हें सुनने में बेहद रस आता रहा.

इंदौर में मुंबई का बेहद प्रभाव है. ये वहां की भाषा में भी दिखाई देता है. जैसे कल्टी होना. यानी के पी के. खाओ पिओ और खिसको.

चिरकुट शब्द की उत्पत्ति पर शोध किया जा सकता है. इसका इस्तेमाल हम कॉलेज में बढ़ते वक्त भी करते रहे. दिल्ली आकर भी ये उपाधि प्रचलन में देखी. एक बार समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह के मुंह से सुना तो अच्छा लगा. वो इस उपाधि से किसी को महिमामंडित कर रहे थे.

जुगाड़ तो अब भारतीय संस्कृति में रच बस गया है. वैसे ये मुख्य रूप से उत्तर भारत का शब्द है. लेकिन अब ये मान लिया गया है कि भारतीय जुगा़ड़ू होते हैं.

मुगालता. ऐसा ही एक मशहूर शब्द है. कॉलेज में हम कहते थे कुत्ता पालो, बिल्ली पालो मगर मुगालता मत पालो. दिल्ली आकर भी इसे करीब-करीब ऐसे ही रूप में सुनने को मिला.

ऐसे ही कुछ और शब्दों पर आपका ध्यान जाए तो बताना न भूलें.

Monday, April 21, 2008

बीजेपी का घमासान

अगले लोक सभा चुनाव की तैयारियों में जुटी बीजेपी के लिए ये बहुत बुरी ख़बर है. पहले बिहार तो अब महाराष्ट्र, दो महत्वपूर्ण राज्यों में पार्टी में बग़ावत साफ़ दिखाई दे रही है.


पहले बात गोपीनाथ मुंडे की. प्रमोद महाजन के बहनोई मुंडे महाजन के रहते राज्य ईकाई के सर्वेसर्वा बने रहे. दोनों में सहमति रही कि महाजन दिल्ली में बैठ कर महाराष्ट्र बीजेपी को अपने डंडे से हांकते रहेंगे और मुंडे वहां उनके प्रतिनिधि रहेंगे.


लेकिन महाजन के निधन के बाद तस्वीर बदल गई. बीस साल से दबे-कुचले रहे महाराष्ट्र बीजेपी के दूसरे नेताओं की महत्वाकांक्षा सिर उठाने लगी. राज्य बीजेपी के अध्यक्ष नितीन गडकरी ने इसमें पहल की. केंद्रीय नेतृत्व ने भी मौके की नज़ाकत भांपते हुए गड़करी के इरादों को हवा दी.


इस बीच, मुंडे महाजन से हुई खाली जगह को भरने के लिए दिल्ली की राजनीति में आ गए. उन्हें पार्टी ने महासचिव बना दिया. वो राजस्थान के प्रभारी भी रहे. पिछले साल जाट-गुर्जर संघर्ष को सुलझाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई.


लेकिन दिल्ली में रहते हुए भी मुंडे की नज़रें महाराष्ट्र पर ही लगी रहीं. पर पहले जैसी बात नहीं रही. चाहे शिवसेना से गठबंधन का सवाल हो, या फिर राज्य सभा और विधान परिषद के उम्मीदवारों के चयन का, मुंडे अपनी बात नहीं मनवा सके. हर जगह नितीन गड़करी का पलड़ा ही भारी रहा.


मुंडे को करारा झटका तब लगा जब मधु चव्हाण को मुंबई बीजेपी का अध्यक्ष बना दिया गया. वो किरीट सोमैय्या या फिर राज पुरोहित को अध्यक्ष बनवाना चाहते थे. ये दोनों ही नेता महाजन के वफादार रहे हैं. राज पुरोहित से मेरी मुलाकात जयपुर में भी हुई थी जहां वो जाट गुर्जर विवाद सुलझाने में मुंडे की मदद कर रहे थे.


लेकिन महाजन के साये से महाराष्ट्र बीजेपी को दूर करने में लगे केंद्रीय नेतृत्व ने तरज़ीह दी मधु चव्हाण को. वो इसलिए क्योंकि वरिष्ठता में ये दोनों ही नेता उनका मुकाबला नहीं कर सकते. आखिर महाजन पर आरोप भी तो यही लगता रहा कि उन्होंने राज्य में अपनी कोटरी से अलग लोगों की वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ कर उनके पर काटे.


यही बात मुंडे को रास नहीं आई. राज्य सभा की उम्मीदवारी में भी रेखा महाजन को टिकट नहीं मिल सका. और प्रकाश जावड़ेकर का पत्ता काटने के लिए आखिरी मौके पर दत्ता मेघे तक का नाम चलवा दिया गया था.


मुंडे से नुकसान


लेकिन मुंडे की ये नाराज़गी बीजेपी के लिए बुरा संकेत है. मुंडे का महाराष्ट्र की राजनीति में अपना कद है. लोक सभा चुनाव से ठीक पहले इस ओबीसी नेता का मुंह फुलाना बीजेपी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है.


औरंगाबाद और उसके आस-पास के इलाकों में मुंडे काफी असर रखते हैं. वो राज्य के उप मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. ऐसे में उनका नाराज़ होना राज्य में नए समीकरणों को जन्म दे सकता है.


ख़बर है कि वो छगन भुजबल के संपर्क में हैं. ये दोनों नेता मिल कर नया गुल खिला सकते हैं. उधर, राज ठाकरे भी इसी इंतज़ार में हैं कि उनके साथ कोई बड़े नेता आएं.


इसीलिए मौके की नज़ाकर भांप कर केंद्रीय नेतृत्व सक्रिय हो गया है. बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा है कि मुंडे का इस्तीफा स्वीकार नहीं किया जाएगा. साथ ही, उन्हें मनाने की कोशिशें भी तेज़ हो गई हैं.


लेकिन राजनीतिक विश्लेषण ये कहता है कि मुंडे ने ये कदम उठा कर जल्दबाजी दिखाई है. बीजेपी से अलग हो कर वो चाहे आने वाले चुनाव में पार्टी को नुकसान पहुंचाएं लेकिन वो खुद भी फायदे में नहीं रहेंगे. बीजेपी में रहना सिर्फ उन्हीं के नहीं बल्कि पूनम महाजन के भविष्य का भी सवाल उठाता है जो दक्षिण मुंबई से लोक सभा का चुनाव लड़ने की तैयारियों में जुटी हैं.


ये बीजेपी का इतिहास भी बताता है कि जो नेता उससे अलग हुए वो कामयाब नहीं हो सके. उन्होंने बीजेपी को तो नुकसान पहुंचाया लेकिन खुद भी ज़्यादा कुछ हासिल नहीं कर सके और आखिरकार लौट कर बीजेपी में ही आना पड़ा.


पार्टी के एक नेता ने मुझसे कहा है कि बॉक्सिंग रिंग में रह कर आप चाहे अपने प्रतिद्वंद्वी पर कितने ही प्रहार कर लें लेकिन रिंग से बाहर निकलते ही आपका मुकाबला ख़त्म हो जाता है. इसलिए बीजेपी में अगर अपनी बात मनवानी है तो रिंग में रहना ज़रूरी है.

Wednesday, April 16, 2008

बात बहस की

संसद में बुधवार को महंगाई पर बहस हुई. कई बार पत्रकार दीर्घा में बैठ कर संसद में होने वाली सार्थक बहसों का लुत्फ लिया है. ये बहस भी वैसी ही रही.


वैसे देखा जाए तो इस बहस के दो पहलू रहे. पहला तो ये कि महंगाई के मुद्दे पर मंगलवार को संसद न चलने देने वाले सांसदों ने ये साबित कर दिया कि उनकी ज्यादा दिलचस्पी हंगामा करने और मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचने में रहता है. जब ये बहस हुई तब दोनों ही सदनों में कोरम तक पूरा नहीं हो पाया. मुट्ठी भर सांसद महंगाई जैसे गंभीर और आम आदमी से जुड़े मुद्दे पर हुई बहस से रूबरू रहे.


चूंकि राज्य सभा हाऊस ऑफ एल्डर्स कहा जाता है लिहाज़ा ज़्यादा मंझे हुए वक्ता भी यही मिलते हैं. इस बहस की शुरुआत की बीजेपी के नेता मुरली मनोहर जोशी ने. उन्होंने सरकार पर महंगाई से निबटने में नाकाम रहने का आरोप लगाया.


जोशी ने ख़ासतौर से कपिल सिब्बल की खिंचाई की. सिब्बल कह चुके हैं कि सरकार के पास महंगाई से लड़ने के लिए कोई जादू की छड़ी नहीं है. जोशी ने कहा कि सरकार के पास चाहे ये छड़ी हो न हो लेकिन जब उसकी जनता की छड़ी से पिटाई होगी तो उसे पाताल में भी छुपने की जगह नहीं मिलेगी.


सरकार की ओर से कांग्रेस के पी जे कुरियन ने मोर्चा संभाला. कुरियन ने माना कि पिछले छह महीनों में बेतहाशा महंगाई बढ़ी है. लेकिन उनका मानना है कि यूपीए सरकार ने अपनी ओर से इस पर अंकुश लगाने की भरपूर कोशिश की है. कुरियन ने सरकार का ये आरोप दोहराया कि महंगाई की बड़ी वजह है राज्य सरकारों की नाकामी.


असली मज़ा आया खांटी समाजवादी और बुजुर्ग नेता जनेश्वर मिश्र को सुनने में. उन्हें जब भी सुनता हूं तो चंद्रशेखर की याद आती है. बिल्कुल बेबाक. अभी बीमार हैं. इसलिए बैठे-बैठे ही भाषण दिया. शुद्ध हिंदी में देसी अंदाज़ में जैसे अखाड़े में किसी को धोबी पाट से चित कर रहे हों वैसे ही धीरे-धीरे मंझे अंदाज़ में मनमोहन सिंह सरकार को जमकर रगड़ा.


उन्होंने कहा कि ज़रूरी चीज़ों के वायदा कारोबार ने महंगाई को बढ़ाया है. उन्होंने फ्यूचर ट्रैडिंग को डाकुओं का अड्डा बताया. नई हरित क्रांति की ज़रूरत पर ज़ोर दिया. कहा, राहुल गांधी का नाम आगे बढ़ने से मनमोहन सिंह की कुर्सी पर खतरा मंडरा रहा है. इसलिए महंगाई से निबटने के लिए नई-नई शातिर तरकीबें ईजाद की जा रही हैं.


फिर बोले सीताराम येचुरी. कहा एक तरफ है चमकता भारत तो दूसरी तरफ है तड़पता भारत. उन्होंने सरकार को आगाह किया कि दोनों भारतों का अंतर पाटे नहीं तो बहुत देर हो जाएगी. येचुरी को सुनने में भी बहुत मज़ा आता है क्योंकि उनके भाषण तथ्यों पर आधारित होते हैं. वो अपने तर्कों के समर्थन में मज़बूत आँकड़े पेश करते हैं. बिना लाग लपेट के वो अपनी बात कह जाते हैं.


ऐसे में पत्रकार दीर्घा से बाहर निकल कर बस एक ही ख़्याल आया. मैंने उन सांसदों के बारे में सोचा जो दुनिया भर की मटरगश्तियों में मसरूफ़ होंगे. जो मौक़ा मिलने पर सिर्फ़ हंगामा करते हैं. लेकिन गंभीर बहस के दौरान सदनों से गैर हाज़िर रहते हैं.


मीडिया के बारे में भी सोचा कि ये गंभीर सार्थक बहस कितने न्यूज़ चैनल्स के प्राइम टाइम बुलेटिन की हेडलाइन तो छोड़ें अगर बुलेटिन का हिस्सा भी बन पाए तो गनीमत है. ऐसे में उन सांसदों का क्या कसूर जिन्हें अपनी शक्ल टीवी पर दिखवाने के लिए हंगामे के अलावा कोई और रास्ता नज़र नहीं आता.ब

Friday, April 11, 2008

फुल क्रीम या फटा दूध



सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़ों के रिजर्वेशन पर मुहर लगा दी. कल सबने जमकर स्वागत किया. आज जब तह में गए तो पसीने छूट गए.

सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि वो रिजर्वेशन को राजनीतिक हथियार नहीं बनने देगी. अगर ये मिलेगा तो सिर्फ उन्हीं को जो इसके हकदार हैं.

पसीने अब उनके छूट रहे हैं जो पिछले बीस साल से इसी मुद्दे पर राजनीतिक रोटियां सेंकते आ रहे हैं. पिछड़ों के नाम पर राजनीति करने वाले और इसी के बूते सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने वाले लोग अब सकते में हैं.

सबसे बड़ा झटका लगा है क्रीमी लेयर के मुद्दे पर. सुप्रीम कोर्ट ने कोई नई बात नहीं कही है. अशोक ठाकुर बनाम केंद्र सरकार के मुकदमे में क्रीमी लेयर पर उसने वही बात कही है जो इंदिरा साहनी बनाम केंद्र सरकार के मामले में कही गई थी.

ये बात सही है कि क्रीमी लेयर की बात संविधान में नहीं कही गई है. लेकिन क्या इसी संविधान में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने से पहले तक पिछड़ों के लिए रिजर्वेशन की बात है क्या.

यहां तक कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तो पिछड़ी जातियों के लिए किसी भी तरह के रिजर्वेशन के खिलाफ थे.

क्रीमी लेयर क्यों बाहर रहे

इसलिए क्योंकि उनकी आर्थिक और सामाजिक हालत को देखें तो वो किसी भी तरह से पिछड़े नहीं कहे जा सकते. पिछड़ों के नाम पर अगर उन्हें रिजर्वेशन देंगे तो वो अपने ही मदद के तलबगार भाइयों का हक मारेंगे.

इसलिए क्योंकि रिजर्वेशन का फ़ायदा उठा कर वो इस हाल में पहुंच चुके हैं कि उनकी आने वाली पीढ़ियों को इसकी दरकार नहीं.

इसलिए क्योंकि क्रीमी लेयर को परिभाषित करने वाले सरकार के आठ सितंबर १९९३ के मेमोरंडम को देखें तो ऐसे लोगों को रिजर्वेशन की ज़रूरत नहीं.

इसलिए क्योंकि रिजर्वेशन अगर जाति के आधार पर दिया जा रहा है तो आर्थिक और सामाजिक हालत देख कर उसे नकारा भी जा रहा है.

इसलिए क्योंकि पहली बार रिजर्वेशन सिर्फ जाति के आधार पर नहीं दिया जा रहा बल्कि आर्थिक हालात भी एक बड़ा फैक्टर बन गए हैं.

और, सही मायनों में यही सामाजिक न्याय है. अगड़ों को इस पर एतराज़ इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि उनका हक नहीं मारा जा रहा है. रिजर्वेशन सिर्फ़ उन्हें मिल रहा है जिन्हें वाकई इसकी जरूरत है.

ये वही लोग हैं जो संसद में, नौकरशाही में, व्यवसायों में और मीडिया में बैठकर आंकड़े गिनाते रहे हैं. पिछड़ो को रिजर्वेशन की वकालत करते रहे हैं. ताकि उनकी आने वाली पीढ़ियां तर जाएं. उनकी पार्टी को ज़्यादा सीटें मिल जाएं.

बिहार में अगर नीतीश कुमार की सरकार बनी तो बड़ी वजह थी अति पिछड़ों का उनको मिला समर्थन. ये वो लोग थे जो विकास तो छोड़िए जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी करने की कश्मकश में उन अगड़े पिछड़ों से पीछे छूट गए जो आज के बिहार में माली हालत में किसी भूमिहार-जमींदार या अगड़े से पीछे नहीं रहते. कुछ यही हाल उत्तर प्रदेश का भी है.

मूलत खेती करने वाले पिछड़े का गांव में रसूख कम नहीं होता क्योंकि उसकी आर्थिक हालत ठीक-ठाक होती है. असली पिछड़ा वो है जो छोटे-मोटे धंधे में लगा है और दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करने में खुद को बेबस पाता है.

इसीलिए क्रीमी लेयर को अलग करने से असली फायदा उन तक पहुंचेगा. आप अगर साल में ढाई लाख रुपया कमाते हैं तो आपको रिजर्वेशन नहीं मिलेगा. क्योंकि पिछड़ों के ही समाज में ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं जो दस साल में इतना पैसा नहीं कमा सकते.

पिछड़ेपन की परिभाषा क्या है. पिछड़ों के साथ वो समस्या नहीं रही जो दलितों या आदिवासियों के साथ रही. उनका ऊंची जातियों ने तिरस्कार नहीं किया. बल्कि किसी भी ग्राम समाज के लिए वो एक हिस्सा रहे जिसे किसी हाल में अलग नहीं किया जा सकता था.

मध्य प्रदेश को लीजिए. वहां पिछड़ों में सरकारी तौर पर मुसलमानों की कम से कम ९० जातियां शामिल हैं. इस्लाम में जातियों या अगड़ों-पिछड़ों की कल्पना नहीं है. लेकिन भारतीय मायनो में इसकी ज़रूरत थी और जिन्हें ज़रूरत है इसका फायदा मिल रहा है. इस पर न तो कोई एतराज़ करता है और न ही कर सकता है.